Thursday, January 30, 2020

पृष्ठभूमि तथा पहली किश्त

पृष्ठभूमि तथा पहली किश्त
इस कथा का पहले ही फेसबुक पर आरंभ हो गया है। कुछ पोस्ट टंकित तथा कुछ वीडियो रूप में पोस्ट किये गये हैं। उनके बिखरे रहने से पाठकों को असुविधा हो रही है। उसके निवारण के लिए अब इसे एक ब्लाग के रूप में संजोया जा रहा है।
तत्काल पहले अंकित रूप में पोस्ट किये गये 10 अंक आपके समक्ष प्रस्तुत हैं।



संप्रदाय कथा

1.     अनादि, अनंत और अनिर्वचनीय की कथा क्यों?
2.   संप्रदाय कथा में आई अद्भुत उलझन
3.     देवता आधारित संप्रदायों की विशिष्टता
4.     देवता आधारित संप्रदायों में वर्चस्व एवं समन्वय की प्रक्रिया : अंक एक
5.     देवता आधारित संप्रदायों में वर्चस्व एवं समन्वय की प्रक्रिया : अंक दो
6.   देवता आधारित संप्रदायों में वर्चस्व एवं समन्वय की प्रक्रिया : अंक तीन
7.     संप्रदाय कथा एवं मुक्ति की समझ
8.     संप्रदाय कथा वैष्णव संप्रदाय
9.     सौर संप्रदाय और उसमें अन्य संप्रदाय की बातों का समन्वय
10.            संप्रदाय कथा प्रश्नोत्तरी 1

1 अनादि, अनंत और अनिर्वचनीय की कथा क्यों?
यह संसार और इसके ऊपर ईश्वर, ब्रह्म या इसी प्रकार की सत्ता जब अनादि, अनंत और अनिर्वचनीय है तब उसका निरूपण या उसकी कथा क्यों? यह प्रश्न लोगों के दिमाग में घूमता रहता है और बहुत लोगों को ऐसा लगता है कि विद्वान अथवा धर्म शास्त्री , दार्शनिक पगला गए हैं। दूसरों को बेमतलब परेशान करते रहते हैं। वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है। संसार से तो लोग परिचित ही हैं , मन से भी आंशिक परिचय सभी का है।
दर्शन में जैसे ही पूरे संसार को ध्यान में रखकर उसके संबंधों का वर्णन शुरू होता है तब द्वैतवाद, अद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, स्यादवाद , अपोहवाद आदि दार्शनिक मतों से आम जनता परेशान सी हो जाती है।
सीधा सीधा आरोप रहता है कि जब ठीक ठीक बता ही नहीं सकते तो फिर व्याख्यान क्यों दे रहे हैं ?यहां पर अनिर्वचन शब्द को ठीक से समझना जरूरी है। अनिर्वचनीय शब्द का अर्थ है जिसे ठीक ढंग से सही सही और निश्चित रूप से स्पष्ट ना किया जा सके, व्याख्या न की जा सके ऐसी स्थिति में यह अर्थ तो निकलता नहीं है कि उसके बारे में आंशिक रूप से भी अथवा सापेक्ष रूप से भी कुछ नहीं कहा जा सकता। संसार है का आंशिक और सापेक्ष बोध तो सभी को होता है। जो सिद्ध योगी हैं , जो परम ज्ञानी हैं, ऋषि हैं , उनकी बातों को मानकर, उन पर भरोसा कर आपस में बात करने में क्या बुराई है?
भारत के लोग श्रद्धा और समझ के साथ सृष्टि अर्थात संसार और इसके सूक्ष्म घटक जैसे माया, ईश्वर , ब्रह्म आदि की चर्चा करते हैं ।
साथ ही साथ मन एवं इंद्रिय के माध्यम से संसार से जब जुड़ाव होता है , उस अनुभव को तथा मन को संसार एवं इंद्रिय से हटाकर अपने अस्तित्व की ओर जब केंद्रित किया जाता है उस अनुभव तथा उनके आपसी संबंधों को समझने का प्रयास किया जाता है ।
इन्हीं प्रयासों में अंतर के कारण अनेक मत मंतांतर तथा संप्रदाय विकसित होते रहे हैं। मैं भी इसी पृष्ठभूमि में आगे वैष्णव संप्रदायों की कथा को जारी रखूंगा क्योंकि इनमें उपर्युक्त विभिन्न मत प्रचुर रूप से मिलते हैं । आशा है यह स्पष्टीकरण आगे संप्रदायों को समझने में मददगार होगा।
Onkar Mittal अनिर्वाचनिय का एक अर्थ है कि अनुभवगम्य है - जिसने अनुभव किया है वहीं जान सकता है - मात्र शब्द से अर्थ का बोध नहीं कराया जा सकता उसको जिसने अनुभव न किया हो और जाना न हो। ईसीसे जुड़ी हुई बात है कि इसका ज्ञान और अनुभव होना एक जन्म के पुरुषार्थ से नहीं हो सकता - ये जन्म जन्मांतर की यात्रा है - तीसरी मर्यादा ये है कि जिसने ब्रह्म को जान लिया वो ब्रह्म हो गया इसलिए वो जिज्ञासु और साधक की परिधि में नहीं रहा।

लेकिन आपने जो विवरण दिया वो इससे कुछ अंतर है। चाहें तो स्पष्ट करें।
·         Ravindrakumar Pathak Onkar Mittal यह बात आप कह सकते हैं लेकिन वे क्या कहेंगे, जो अनिर्वचनीय मान कर भी न केवल चर्चा करते हैं बल्कि सही गलत निर्णय के लिए शास्त्रार्थ और बहस भी कर रहे हैं। यह व्याख्या वैसे लोगों की तरफ से है। मैं तो और अधिक अनेक लोगों की ओर से विभिन्न मतों के बारे में जानकारी दे रहा हूँ, तो यह पोस्ट अग्रिम सफाई, स्पष्टीकरण के रूप में है।
Onkar Mittal अभी खिचड़ी चल रहा है। तात्विक चर्चा में अपने अपने शास्त्र के अनुशासन के आधार पर बात करनी होगी - शब्द की मर्यादा के अनुसार ही अर्थ बोध होगा। एक परम विद्वान कभी सांख्य का उद्धरण देते हैं कभी शंकर वेदांत का। ये सब समन्वय के नाम पर। मेरी दृष्टि में ये उचित नहीं। जय जगदीश हरे।
2 संप्रदाय कथा में आई अद्भुत उलझन
मित्रों संप्रदाय कथा जारी रखने में कई प्रकार की अड़चनें आ रही हैं।कुछ अड़चनें तो अपने भीतर की ही हैं, जिसमें सबसे बड़ी समस्या है कि ईमानदारी से जब वर्गीकरण की कोशिश कर रहा हूं तो इतने प्रकार के विरोधाभासी तथ्य सामने आते हैं कि निर्णय करना कठिन होने लगता है ।
उससे भी मजेदार देखना यह है कि संप्रदायों की उत्पत्ति, उनका प्रचार-प्रसार और उनके आपसी संबंध अनेक रोचक कथाओं से भरे पड़े हैं। मन तथ्य संग्रह की जगह कथाओं में डूबने लग जाता है। कथा कहने का म...
3 देवता आधारित संप्रदायों की विशिष्टता
मुख्य रूप से शिव , शक्ति, विष्णु और और सूर्य , इन्हीं देवताओं के आधार पर वैदिक संप्रदाय हैं। प्रश्न उठता है कि इन देवताओं पर आधारित संप्रदायों का सनातन धर्मीय व्यवस्था में क्या योगदान है और इनकी विशेषता क्या है? इस विषय को ध्यान रखना भी आगे की बातों की समझ के लिए जरूरी है।
यूं तो आज के जमाने में सभी संप्रदाय दूसरे संप्रदायों की सामग्री को भी अपने में समेटे हुए हैं फिर भी सभी की विशेषताएं भी बची हुई हैं। शिव की साधना पर आधारित संप्रदायों की मूल चिंता आत्मज्ञान है। शक्ति की साधना पर आधारित संप्रदायों में विभिन्न मानसिक शक्तियों और चेतना बीच के संबंध की जानकारी के साथ शक्तियों के उपयोग की कला को समझना मुख्य लक्ष्य है। इस प्रकार चेतना एवं शक्ति के परस्पर संबंधों को समझना समझने का काम शैव एवं शाक्त संप्रदायों में हो जाता है। सौर अर्थात सूरज आधारित संप्रदाय चेतना, शक्ति और उनके साथ संपूर्ण ब्रह्माणडीय संरचना की न केवल व्याख्या करते हैं बल्कि बाह्य संसार और आंतरिक संसार दोनों के स्तर पर उनके विन्यास तथा उपयोग की प्रविधियां बताते हैं।
जितने भी ज्योतिष संबंधी कर्मकांडीय प्रावधान हैं और मानसिक शक्तियों से उनके संबंध हैं, उनकी व्याख्या सौर तंत्र के अंतर्गत आता है। इस प्रकार संपूर्ण व्यवस्था को सौर संप्रदाय संभालता एवं युग के अनुरूप संशोधित, संपादित करता रहा है।
इस प्रकार अलौकिक तथा लौकिक दोनों कर्मकांड को व्यवस्थित और युक्ति संगत रखने का काम सौर संप्रदाय का है।
वैष्णव संप्रदाय का मुख्य लक्ष्य समाज व्यवस्था है। समाज में प्रेम और सत्ता का स्वरूप कैसा हो, इसके ऊपर वैष्णवों ने बहुत काम किया है ।
इस प्रकार से उपर्युक्त चारों संप्रदाय अपनी-अपनी भूमिका निभाते रहे। आज जो संप्रदायों का स्वरूप मिलता है, उसमें हर एक संप्रदाय अपने मूल लक्ष्य से भिन्न अन्य बातों को भी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए जोड़ते गए इसलिए मेरी बात कुछ लोगों को सही नहीं लग सकती है लेकिन यदि इस पर विस्तार से आप सोचेंगे तो शायद आप मुझसे सहमत हो जाएं।
सौर संप्रदाय आज स्वतंत्र संप्रदाय के रूप में नहीं हैं। योग, तंत्र, ज्योतिष आदि के क्षेत्र में इन्होंने भरपूर काम किया है। प्राचीन मंदिरों के सिलसिले में भी यह। संप्रदाय काफी प्राचीन है। आज सूर्य पूजा किसी समूह या समुदाय तक सीमित नहीं है लेकिन सूर्य पूजक ब्राह्मणों का स्वतंत्र अस्तित्व आज भी है।
क्रमशः।

4 देवता आधारित संप्रदायों में वर्चस्व एवं समन्वय की प्रक्रिया : अंक एक
संप्रदाय कथा जारी है । आदि शंकराचार्य के द्वारा प्रवर्तित दशनामी संप्रदाय के बारे में जानकारियां दी गईं।
उसके बाद द्वैत वादी संप्रदायों की बारी आएगी इस दौर की संप्रदाय कथा हो उसके पहले देवताओं पर आधारित संप्रदाय के बारे में और उनके आपसी संबंधों के बारे में भी बुनियादी तौर पर कुछ बताना जरूरी है। देवी-देवता आधारित संप्रदाय स्पष्ट रूप से द्वैतवादी होते हैं। इनमें इष्ट देवता के साथ सगुण साकार उपासना का बहुत महत्व होता है। अभी जो बहुसंख्यक सनातनी समाज है, वह सगुण उपासना के प्रति अधिक रुचि रखता है। प्राय: देखा जाता है कि क्षेत्र और काल के भेद से समाज का विभिन्न देवताओं के प्रति आकर्षण घटता-बढ़ता रहता है। नए-नए देवी-देवता प्रगट होते हैं और पुराने से संबंध कमजोर होते जाते हैं और फिर लुप्त हो जाते हैं। प्रश्न है कि ऐसा क्यों होता है और इस प्रकार के व्यवहार के प्रति लोगों की समझ क्या है, उन्हें किस प्रकार प्रेरित नियंत्रित किया जाता है? आजकल अयोध्या का फैसला जोर शोर से चर्चा में है कि वहां मंदिर था या नहीं था और तोड़ा गया या नहीं?
कल्पना करें कि यदि आस्था का संकट दो देवताओं के बीच होता तो क्या होता? और उसका समाधान किस तरह निकाला जाता?
मान लीजिए कि एक तथाकथित हिन्दू आस्था वाला राजा होता तो दोनों पक्षों के धर्माचार्यों को बुला कर एक कथा गढने को कहता कि,.............
भौतिक स्तर पर तीन गुंबदों के ऊपर तीन तीन कलश बिठा दिये जाते और तीन देवता, तीन राम माताओं, राम के तीन रूप, किशोर रूप, वनवासी योद्धा रूप और राज्याभिषिक्त रूप की प्रतिमा बिठा दी जाती।
क्यों तोड़ दें ढांचा? जब व्यक्ति की आस्था बदली तो क्या उसका शरीर, मकान, परिवार बदला?
आस्था की मूर्ति बदली तो उसे बदल दिया गया।
रही बात कि अगर बंटवारे की बात होती तो बंटवारा किस तरह होता? ये सभी बातें भी जानना होगा तभी कथा समझ में आएगी।
यहाँ अयोध्या का मामला अलग प्रकार का था। मुझे तो यह भी नहीं पता कि राम जन्मभूमि नाम से चर्चित तोड़ दिए गए ढांचे की संरचना कैसी थी? उस दिन हमलोग अपने शहर को दंगे से बचाने में लगे रहे।

5 देवता आधारित संप्रदायों में वर्चस्व एवं समन्वय की प्रक्रिया : अंक दो
संप्रदाय कथा जारी है । देवी-देवता आधारित संप्रदायों के बारे में यह भी जानना जरूरी है कि आविर्भाव, अंतर्भाव एवं तिरोभाव कैसे होता है।
आविर्भाव को समझना आसान है कई बार नए-नए देवी देवता प्रगट होते रहते हैं और सनातन धर्म की धारा में स्थान प्राप्त करते रहते हैं। जितने अवतार हैं वे देवता बन जाते हैं। आविर्भाव का यह सबसे प्रचलित रूप है। इसके अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर छोटे-छोटे देवता भी प्रगट एवं स्वीकृत होते रहते हैं। जरूरी नहीं है कि उनका पुराणों में या अन्य धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख हो हो ही। हाल फिलहाल संतोषी माता का आविर्भाव ऐसी ही एक देवी के रूप में हुआ। मुझे इनका कोई पौराणिक आधार नहीं मिला। साईं बाबा दूसरे प्रचलित उदाहरण हैं । साईं बाबा को लेकर तो काफी विवाद भी हुआ कि उन्हें देवता के रूप में माना जाए या नहीं और सनातन धर्मी मंदिरों में उनकी मूर्ति लगे या नहीं लगे? इसी प्रकार पहले भी बहुत सारे देवी देवता प्रगट होते रहे।
अंतर भाव की दूसरी प्रक्रिया होती है जिसमें मान लिया जाता है कि एक देवता दूसरे देवता में समा गए हैं । इसमें स्पष्ट है कि जिस देवता में दूसरे देवता समा जाते हैं उनका आकार और उनकी कथा छोटी हो जाती है और जो अपने में दूसरे को समेट लेता है उसका आकार और प्रभाव दोनों बड़ा हो जाता है।
ब्रह्मा जी का अंतर भाव हो गया । वे शिव और कुछ हद तक विष्णु में लीन हो गए । ऐसा नहीं है कि आज भी ब्रह्मा जी के अस्तित्व पर कोई प्रश्न चिन्ह है। उनके बिना त्रिदेव की गणना पूरी हो ही नहीं सकती फिर भी ब्रह्मा जी की मूर्ति बनाकर या किसी अनुष्ठान द्वारा पूजा बंद हो गई है । यज्ञ में उन्हें एक निष्क्रिय देवता के रूप में स्थापित किया जाता है। सबसे अधिक अंतर भाव का खेल सूर्य, शिव एवं विष्णु के बीच होता रहा है । विष्णु और शिव तो सबसे प्रचलित और स्वीकृत देवता हैं ही साथ ही साथ सूर्य की उपासना भी भारतवर्ष होती रही है और सूर्य मंदिर भी प्रायः सभी स्थानों में पाए जाते हैं । उदाहरण के लिए काशी शिव की नगरी है फिर भी वरुणा से अस्सी तक सूरज के 12 मंदिरों की सूचना काशी माहात्म्य में मिलती है। दो प्रमुख मंदिर आज भी अच्छी स्थिति में है और बाकी को भी मैंने 81-82 में उपलब्ध पाया है। कहीं छोटे स्वतंत्र मंदिर के रूप में और कहीं केवल मूर्ति के रूप में । कोणार्क से लेकर पुष्कर एवं अन्य स्थानों पर सूर्य मंदिरों के अवशेष पाए गए हैं ।
कई स्थानों पर कई देवताओं के उपासना की कथा मिलती है लेकिन मंदिर एक ही मिलता है। तब सवाल होता है कि पहले वाले की मंदिर का क्या हुआ? इसी प्रकार कालखंड की दृष्टि से किसी भी क्षेत्र मे भिन्न भिन्न देवताओं की उपासना का संदर्भ प्राप्त होता है तब प्रश्न उठता है कि लोगों के मन में आखिर 2 देवताओं के प्रति निष्ठा और आस्था का समन्वय कैसे हुआ? क्या एक उपासना को लोगों ने गलत और दूसरे को सही माना है?
सनातन धर्म में इसकी अनिवार्यता नहीं है जैसे शिवजी के भीतर सूर्य अंतरभाव कर दिया जाता है। सूरज के भीतर आदित्य और आदित्य में से एक विष्णु का अंतर्भाव हो जाता है और मान लिया जाता है कि सूर्य सभी देवताओं में श्रेष्ठ और बड़े हैं। इतना ही नहीं सूरज के प्रातः कालीन रुप को ब्रह्मा, मध्यकालीन रूप को विष्णु और सायं कालीन रूप को रुद्र मान लिया जाता है और लोगों को बताया जाता है कि सूर्य की उपासना पर्याप्त है तीनों देवता सूर्य के तीन रूप हैं। सूरज के भीतर त्रिदेव का अंतर भाव माना जा सकता है तो फिर शिव एवं विष्णु के भीतर सूरज का अंतर्भा व भी माना जा सकता है। सूर्य पुराण नाम का एक उप पुराण है। इसमें सिद्ध किया गया है कि सिव ही सूर्य हैं।इसलिए शिव की उपासना पर्याप्त है। सूरज की अलग से उपासना करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। चूंकि मेरी जानकारी सीमित है इसलिए मैं अपनी जानकारी के क्षेत्रों से ही उदाहरण दे सकूंगा।
मगध क्षेत्र में उमगा, देव और कोंच इन तीनों जगहों पर जो मंदिर हैं वे मंदिर सूर्य मंदिर या शिव मंदिर नहीं हैं। उनका मूल स्थापत्य विष्णु मंदिर का है। कौंच का मंदिर पूर्णत विष्णु मंदिर और उमगा तथा देव के मंदिर जगन्नाथ जी के पुराने मंदिर हैं, जिनमें कभी कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की प्रतिमा स्थापित थी
और जहां आज दूसरे देशों की प्रतिमा स्थापितहै। पुजारी, पंडित लोग अंतर भाव की कथा से मूर्ति परिवर्तन और उपासना में परिवर्तन की बात को संगत बताते रहते हैं। पटना के उत्तर में स्थित हरिहर क्षेत्र एक प्रसिद्ध है क्षेत्र गंगा के किनारे होने से शिव क्षेत्र होना सहज है लेकिन न केवल गज ग्राह की कथा में विष्णु के संरक्षण प्राप्त गज की जीत होती है बल्कि वहां के मंदिर में भी शिव जी के ऊपर नारायण स्थापित कर लिये जाते हैं
यह भी एक प्रकार के अंतर भाव का उदाहरण हुआ ।
जब किसी देवी देवता की उपासना तो दूर उनका कोई नाम लेवा नहीं रहता तो माना जाता है कि ऐसी दैवी शक्ति का तिरोभाव हो गया। उनका लोप हो गया है। अनेक देवी देवता इस सूची में आते हैं । तिरोभाव का एक प्रकार यह भी होता है कि किसी दूर स्थान पर चले गए। इतनी दूर कि हमसे संपर्क टूट गया।
जब बड़े-बड़े यज्ञ आयोजित होते हैं तो उस समय ऐसे देवी देवता का स्मरण किया जाता है और इस प्रकार कभी-कभी उनकी पूजा भी हो जाती है। क्रमशः
6 देवता आधारित संप्रदायों में वर्चस्व एवं समन्वय की प्रक्रिया : अंक तीन
आज का प्रयास वर्चस्व एवं समन्वय की प्रक्रिया बताने वाली इस श्रृंखला में अंतिम है। आशा की जाती है कि इसके बाद आप लोगों को बातों को समझने में काफी सुविधा हो जाएगी । पहले प्रमुख देवताओं के बारे में बताया गया। आज अन्य पर भी बात होगी।
जैसा कि जैन और बौद्ध वस्तुतः सनातन धर्म से पूरी तरह अलग नहीं है इसलिए सनातन एवं बौद्ध, जैन एवं सनातन दोनों के बीच के बहुत सारे देवी देवता भी एक ही हैं और बाद में भी जिन देवी देवी-देवताओं का आविर्भाव हुआ है, उन्हें भी बहुत थोड़े अंतर से एक दूसरे के भीतर स्वीकार किया गया है। उदाहरण के लिए इंद्र , सरस्वती , गणेश, तारा, सूर्य और विभिन्न यक्ष-यक्षिणियां दोनों में लगभग एक अंतर से मिलते हैं और उनकी पूजा भी वहां होती है। देवी के रूपों को लें तो तारा और चामुंडा सबसे अधिक मान्य हैं। सरस्वती वैदिक परंपरा में श्वेत हैं। उनके कपड़े और उनका वाहन हंस भी श्वेत है लेकिन जैन एवं बौद्ध परंपरा में सरस्वती तो हैं लेकिन उनका रंग गाढ़ा नीला है या है हरा है।
सरस्वती का वाहन मोर है जबकि बौद्ध एवं चीनाचार परंपरा में तारा शव पर विराजमान हैं। जैन परंपरा में पद्मावती यक्षिणी का स्थान लक्ष्मी वाला है लेकिन वहां पद्मावती विष्णु की पत्नी नहीं हैं। तारा वस्तुतः बौद्ध चीन आचार परंपरा की देवी हैं। वैदिक दृष्टि से महर्षि वशिष्ठ ने तारा देवी की उपासना वैदिक परंपरा में स्थापित की। मैं ऐसे ही आधारों पर बौद्ध एवं जैन को सनातन परंपरा से अलग नहीं मान पाता हूं।
समन्वय के क्षेत्रीय स्वरूप की दृष्टि से भी कुछ प्रकट प्रचलित उदाहरणों की ओर ध्यान देना जरूरी है। उत्तर भारत में शैव सौर और वैष्णव परंपरा साथ साथ चलती रही है। और उनके साथ बौद्ध तथा जैन मंदिर भी एक ही तीर्थ में उपलब्ध मिलते हैं चाहे काशी हो, राजगीर हो या सारनाथ।
सर्वाधिक समन्वित प्रक्रिया के मंदिर उड़ीसा एवं मध्य प्रदेश में उपलब्ध हैं। वर्चस्व के भी उदाहरण काफी मिलते हैं । नालंदा के संग्रहालय में वैदिक परंपरा के देवी देवताओं को पद दलित करने वाली बौद्ध मूर्तियां मिलती हैं । लामा तारा नाथ के इतिहास में स्थानीय सूर्य पूजक ब्राह्मणों के साथ नालंदा महाविहार के भिक्षुओं के संघर्ष की कथा का वर्णन भी है।
इस प्रकार से वर्चस्व स्थापित करने के उदाहरण भी मिल जाते हैं। कृष्ण पुत्र सांब के बारे में कहा जाता है कि उनका झुकाव जैन परंपरा की ओर भी था। जब सौर परंपरा अपने आप को शिव के साथ निकट सिद्ध करने का प्रयास करती है तो एक द्व्यर्थक शब्द का प्रयोग होता है। सांब सदाशिव शब्द के दो अर्थ होते हैं पहला अर्थ है सदाशिव की अवस्था में सांब और दूसरा अर्थ होता है अंबा पार्वती के साथ में सदाशिव। सूर्य पूजक ब्राह्मण मूलतः मगध एवं राजस्थान में पाए जाते हैं । कुछ इतिहासकारों का मत है कि एक समय जब ओसवाल वैश्य समाज ने जैन परंपरा को स्वीकार किया तो उसने अपने पुरोहितों को भी जैन परंपरा स्वीकार करने के लिए विवश किया क्योंकि वह उन्हीं के दान पर मुख्य रूप से निर्भर थे । पुरानी परंपरा अनुसार कृष्ण पुत्र सांब के प्रति सूर्य पूजक ब्राह्मणों का सहज झुकाव है।
इस प्रकार हमें समन्वय और वर्चस्व के इतने अधिक उदाहरण मिलते हैं और मेरे बस का काम नहीं है ।
आप लोग भी टिप्पणी के रूप में ऐसे प्रसंग जोड़ सकते हैं । यह परिचयात्मक सिलसिला आज यहीं पूरा होता है । नमस्कार


7 संप्रदाय कथा एवं मुक्ति की समझ
एक सीधी सी बात है कि हर आदमी दुख तथा बंधन से मुक्त होना चाहता है और असीम सुख प्राप्त करना चाहता है। इस बात तक लगभग सभी की सहमति है लेकिन बंधन से छुटकारा और असीम सुख कैसा हो, इस मामले में सबकी सहमति नहीं है। अतः प्रचलित रूप से सनातनी परंपरा में भी मुक्ति एक प्रकार की ना होकर प्रचलित रूप से चार प्रकार की है । संप्रदाय की कथा को आगे बढ़ाने के लिए अद्वैतवादी दशनामियों के बाद और वैष्णव परंपरा की कथा के पहले मुक्ति के चार प्रकारों के बारे में बताना जरूरी हो जाता है।
दूसरे संप्रदायों की कथा कहने के पहले जरूरी है की अद्वैत और द्वैत भाग वाले संप्रदायों के मूल अंतर को थोड़ा स्पष्ट कर दिया जाए। दशनामी संप्रदाय अद्वैत वेदांती हैं और उसके बाद के अन्य संप्रदाय किसी ने किसी विशेषण के साथ प्रस्तुत होते हैं । कोई सीधा द्वैतवादी, कोई विशिष्टाद्वैत वादी वगैरह।
इसी प्रकार से मुक्ति के बारे में भी सबकी समझ एक नहीं है । मुख्य रूप से चार प्रकार की मुक्ति मानी गई है। सालोक्य मतलब एक ही लोक में रहना, सामीप्य मतलब एकदम पास पास होना, सायुज्य मतलब जुड़े हुए हो जाना और केवली-निर्वाण आदि मतलब उसी में लीन एकाकार हो जाना।
अद्वैत मत में अंतिम केवली-निर्वाण मान्य है। अन्य में उपर्युक्त तीनों में से अपनी परंपरा के अनुसार कोई एक।
मैं ने संप्रदाय की कथा कहने की घोषणा कर ही रखी है और चल भी रही है।
दो तीन दिनों से ऐसा महसूस हो रहा है कि संप्रदाय कथा के साथ अपने देश और देशज समाज के बनने-चलने की कथा भी जरूरी है। इसके अभाव में लोग संप्रदाय कथा को भी ठीक से समझ नहीं पाएंगे और प्रश्नोत्तरी में विषयांतर ही अधिक हो जाएगा।
इसके लिए एक अच्छे नाम का सुझाव दें।
मेरे पहले भी अनेक लोगों ने इस दृष्टि से काम किया है। उन्हें कृतज्ञता पूर्वक प्रणाम करना जरूरी है। प्रणाम आप सभी को-- सर्व श्री
1
मधुसूदन ओझा जी, मुजफ्फरपुर बिहार एवं जयपुर राजस्थान
2
पी वी काणे, महाराष्ट्र
3
पं गोपीनाथ कविराज, कोलकाता एवं वाराणसी
4
पं गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी
5
रवींद्र शर्मा, आदिलाबाद, महाराष्ट्र
6
के एम कपाड़िया
7
रांगेय राघव
8
स्वामी करपात्री जी
9
प्रो बैद्यनाथ सरस्वती
10
धर्म पाल जी
11
आचार्य नरेन्द्र देव
एवं अन्य अनेक, जिनके नाम अभी स्मरण में नहीं हैं।
सूची में किसी एक राजनीतिक विचार के या एक ही विधा के लोग नहीं हैं।
मैं ने केवल भारतीय समाज की बनावट समझने के लिए इनका नाम लिया है। राजनीति में इनकी मुझे जरूरत नहीं है। वह तो आज के हिसाब से होता ही रहता है।
8 संप्रदाय कथा वैष्णव संप्रदाय
मेरे लिए निर्णय करना बहुत कठिन ही नहीं असंभव जैसा है कि पहले शैव संप्रदाय प्रचलित हुआ या वैष्णव अथवा सौर। मूर्ति की दृष्टि से यदि विचार करें तो सूर्य की मूर्तियां भी बहुत प्राचीन हैं लेकिन द्वादश अवतारों की दृष्टि से जब सोचते हैं तब वराह की प्राचीन मूर्तियां भी ध्यान में आती हैं। शिवलिंग के अनेक रूप विद्वानों ने माने हैं। ऐसे में यह निर्णय करना कठिन है कि कौन सा संप्रदाय पहले प्रचलन में आया और कौन बाद में ।
शैव संप्रदाय की चर्चा है एक अंश तक हो गई है। शैवों के भेद प्रभेद की चर्चा होना बाकी है ।
उसके पहले वैष्णव संप्रदाय से भी थोड़ा परिचित हो लेना उचित जान पड़ता है।
वैष्णव मत का आरंभ किस आचार्य से करें , इतिहास की दृष्टि से निर्णय करना मुश्किल है। रामानुजाचार्य, निंबार्काचार्य, वल्लभाचार्य, यहां तक कि स्वामी रामानंदाचार्य के इतिहास और खासकर उनके काल के बारे में भी मत मतांतर हैं। अत: काल संबंधी विवाद को किनारे करते हुए वैष्णव मतों और उनकी परंपराओं संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत की जाएगी और उसके बाद में विस्तार से सामग्री आएगी।
मामला जब आधिदैविक हो अर्थात उसमें देव योनि के लोग भी शामिल हो जाएं तब काल का निर्णय कैसे होगा ? वैष्णव संप्रदाय में सगुण तथा निर्गुण दोनों प्रकार की भक्ति मान्य है । सगुण भक्ति के आदि प्रवर्तक नारद मुनि माने जाते हैं इसी प्रकार निर्गुण उपासना के प्रवर्तक शांडिल्य ऋषि को माना जाता है। इतना ही नहीं कुछ संप्रदाय नारद जी को सनक नंदन आदि सिद्धों का छोटा भाई मानते हैं तो कुछ लोग नारद जी को अजन्मा देवर्षि मानते हैं । अब इन ऋषियों तथा देवताओं का काल निर्धारण कैसे किया जाए? जो विष्णु के बारह अवतार हैं ये अवतार भी अपने आप में एक लंबी परंपरा हैं। ऐसी व्यवस्था मेरी जानकारी में शैव या अन्य संप्रदायों में नहीं है। खैर इस पृष्ठभूमि में शंकराचार्य के बाद जो वैष्णव आचार्य प्रगट हुए हैं उनमें रामानुज, निंबार्क , बल्लभ और रामानंद सबसे प्रमुख हैं । इनके बाद भी अनेक वैष्णव भक्त संत प्रगट होते रहे और उनके अनुयाई अलग अलग संप्रदाय बनाते रहे हैं। क्रमशः
 Top of Form
Bottom of Form
 Top of Form
Bottom of Form

9 सौर संप्रदाय और उसमें अन्य संप्रदाय की बातों का समन्वय
सौर संप्रदाय मुख्य रूप से निम्नलिखित विषयों का प्रतिपादन कर रहा था--
1
सौर मंडल में विचरण करने वाले विभिन्न ग्रहों, उपग्रहों आदि की गति, स्थिति तथा आपसी संबंधों का मापन, अध्ययन आदि के साथ मानव जीवन में उन सूचनाओं के उपयोग की विधियों को बताना। जैसे ऋतु, माह, तिथि, नक्षत्र आदि का उपयोग और विभिन्न प्रकार के पूर्वानुमान।
2
सौरों ने इसके लिए मंदिर तो बनवाए ही, साथ ही साथ राज्य आश्रय में वेध शालाओं की स्थापना और खगोलीय पिंडों की गति एवं प्रभाव के अध्ययन का काम भी पीढ़ी दर पीढ़ी जारी रखा। चूंकि यह काम बिना पीढ़ी दर पीढ़ी निरंतर गणना के और बिना अचूक गणना के संभव नहीं था इसलिए गणक और ज्योतिर्विद परिवारों में इसके अध्ययन को अनिवार्य बनाये रखा। साथ ही साथ धर्म तथा राज्य शासन द्वारा इन्हें विशेष संरक्षण भी मिला। पुराणों में प्रावधान है कि सूर्य मंदिरों के पुजारी केवल सूर्य पूजक ब्राह्मण ही होंगे। यह एक प्रकार की संरक्षण वादी व्यवस्था है, जो आज से सौ साल पहले तक लगभग मान्य रही लेकिन अब तेजी से इसमें बदलाव आ रहा है और बिना भेदभाव विभिन्न जाति के लोग सूर्य मंदिरों की स्थापना भी कर रहे हैं साथ ही साथ पूजा पाठ भी कर रहे हैं।
3
पहले पहले सूर्यपूजकों ने ज्योतिषीय गणना के लिए छाया मापन का उपयोग किया लेकिन बाद में ध्यान विधियों से भी खगोलीय पिंड की स्थिति एवं गति के अध्ययन की प्रणाली स्थापित की गई। इसके मूलभूत सिद्धांत सूर्य संहिता में देखे जा सकते हैं। वराहमिहिर की बृहद संहिता से बिल्कुल भिन्न किस्म की व्यवस्था सूर्य संहिता में देखने को मिलती है। रूपक के रूप में यदि इस बात को कहें तो पुराणों में बताया गया है कि सूर्य की दो पत्नियां थीं। एक का नाम छाया और दूसरे का नाम संज्ञा है।
4
दोनों से संतान परंपरा आगे बढ़ी, जिसमें यम, शनि, यमुना, चित्रगुप्त आदि विकसित हुए। इस प्रकार सौरों ने लोकोपयोगी पूर्वानुमान का शास्त्र तो समाज को दिया ही, साथ ही साथ अन्य धार्मिक अनुष्ठानों के लिए भी माह, तिथि, नक्षत्र, वार और उससे भी सूक्ष्म मुहूर्तों तक का प्रावधान किया। आज भी सामान्य यात्रा से लेकर बड़े-बड़े कामों में कसनातनी समाज शुभाशुभ दृष्टि से मुहूर्त का बहुत महत्व मानता है। एक प्रकार से मुहूर्त विचार कई मामलों में सबसे महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
5
मेरी समझ से छाया पक्षी सौरों ने विभिन्न वैदिक देवताओं के साथ सूर्य के तादात्म्य और उस व्यवस्था का भी नियामक स्थापित करने के लिए द्वादश आदित्य की अवधारणा को प्रचारित और स्थापित किया तथा अनेक स्थानों पर द्वादश आदित्य अथवा इनमें से किसी एक रूप के मंदिरों की स्थापना की। इसके विपरीत या भिन्न संज्ञा पक्षी सौरों ने शैव एवं शाक्त उपासना पद्धति की विधियों का आश्रय लिया। आज भी प्राचीन सूर्य मंदिरों के आसपास शैव शाक्त परंपरा के छोटे मंदिर एवं मूर्तियां मिलती हैं। लोक परंपरा के अनुसार मल्लों को सूर्य पूजक माना जाता है। छठ पूजा में गीत भी गाया जाता है।
सौर ब्राह्मण भी मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त हैं। इनकी पारिवारिक पहचान अर्थात कुलदेवता एवं मूल ग्राम आदि स्थानों के नाम की जांच की जाए तो साफ पता चलता है कि कुछ लोगों के मूल ग्राम एवं मूल कुलदेवता सूर्य के विभिन्न रूप हैं। इनसे अलग सूर्य पूजक में ब्राह्मणों का एक बड़ा समुदाय शैव शाक्त परंपरा का अनुयाई हो गया है। उनमें से कुछ कट्टर का वामाचारी एवं चीनाचारी भी हो गए थे।
मैं यहाँ किसी व्यक्ति विशेष की पसंद की बात नहीं कर रहा। ऐसे गांव के गांव मिलते हैं। भारत के पश्चिमी भाग के सौर तो अभी भी भोजक नाम से ही जाने जाते हैं।
पुराणों के अनुसार जो लोग सूर्य मंदिरों में पूजा पाठ आराध्य देव की सेवा, भोजन आदि की व्यवस्था संभालते रहे हैं उन्हें भोजन कहा गया है।
शैव शाक्त समन्वय वाले पूर्वी भारत वाले मग कहे जाते हैं और उनके यहां इन्हीं परंपरा की देवी देवताओं की आराधना होती है। इन्होंने ध्यान योग माध्यम से बिना वेधशाला के चिदाकाश में नक्षत्रों की स्थिति और उनके प्रभाव के साक्षात्कार की विधि विकसित की। यह विषय शायद किसी को अविश्वसनीय लगे लेकिन मेरी समझ में असंभव नहीं है। चिदाकाश धारणा के साथ की जाने वाली छोटी मोटी सिद्धियां तो आज भी लोग करते ही हैं। विभिन्न ध्यान साधकों को आज भी आकाश में सौर मंडल दिखाइए देता ही है। क्योंकि ऐसे ध्यान अभ्यासियों को ज्योतिष का खासकर खगोल का ज्ञान नहीं होता है इसलिए ये ठीक से पूर्वानुमान या खगोलीय घटनाओं का निरूपण नहीं कर पाते।
कालचक्र तंत्र की विमलप्रभा टीका के जानकार विद्वानों से मैंने सुना साथ ही पुराण तथा अन्य माध्यमों से प्राप्त जानकारी के अनुसार जब बंगाल में कान्यकुब्ज ब्राह्मण पुनः प्रतिष्ठापित हुए और उसके बाद की सूचनाओं से स्पष्ट है कि बशिष्ठ ऋषि के माध्यम से यानी उनके नाम पर सनातनी परंपरा में बौद्ध तारा वामाचारी तंत्र का शैव शाक्त परंपरा से समन्वय हो गया। बौद्ध तारा के अनेक सनातनी संस्करण बने। मगध के सूर्य पूजक ब्राह्मणों का भी एक समूह चीनाचारी हो गया। शेष सौर, वैष्णव, तथा शैव शाक्त श्रद्धा के बावजूद मुख्यतः स्मार्त सनातनी हैं। दक्षिण भारत की स्थिति की मुझे जानकारी नहीं है।
अभी भी जब तक बंगाल, उड़ीसा और मगध से व्यापक पलायन अथवा स्थानांतरण के इतिहास से पूरा पर्दा नहीं उठता सौर संप्रदाय के स्वतंत्र अस्तित्व के समाप्त होने के कारण पर ठीक से कहना संभव नहीं है। धन्यवाद

10 संप्रदाय कथा प्रश्नोत्तरी 1
Ambarish Tripathi ji ne prashn kiya hai "सम्प्रदाय क्यों जन्म लेते हैं ,कैसे बनते हैं , क्या ये सनातनी व्यवस्था में सुधार के हेतु बनते हैं? मुझे लगता है इस संबंध में आपने जरूर लिखा होगा, कृपया लिंक दें या बताएं।"
एक लिंक भेजा है, कृपया देख लें।
संप्रदाय किसी ऐसे व्यक्ति के विचार, चिंतन और आचरण से आरम्भ होता है जिसे लगता है कि वह कुछ नया बताना चाहता है या किसी मामले में उसके पूर्ववर्ती समाज/समूह की समझ या आचरण उचित नहीं है।
कई बार अपने आप को श्रेष्ठ और मौलिक साबित करने के लिए भी संप्रदाय बनता है। आपसी झगड़े में भी एक संप्रदाय से दूसरे संप्रदाय निकल जाते हैं। किसी को साधना उपासना की कोई नई विधि हाथ लगती है तब भी वह उसके प्रचार प्रसार के लिए नया संप्रदाय बना लेता है।
संप्रदाय लगभग अनिवार्य रूप से दूसरे के विचारों का खंडन करते हैं और केवल अपने को ही श्रेष्ठतम बताते हैं।
यह कहना कठिन है कि ये सनातनी व्यवस्था में सुधार हेतु ही बनते हैं क्योंकि अठारहवीं शताब्दी तक सनातनी व्यवस्था में सुधार की अपनी अंतर्निहित प्रक्रिया थी।
योरपीय औपनिवेशिक राजकाज के पहले तक यह सिलसिला चलता रहा।
अचानक या धर्म पाल जी के शोथ तथा अन्य साक्ष्यों के अनुसार पाश्चात्य औपनिवेशिक कुचक्र में एक ओर धर्म शास्रों का अद्यतन करना रुका, वर्ण जाति को खांचे में स्थिर किया गया। उसे सरकारी मान्यता दी गई। इतिहास उलटे पुलटे रचे गए और समझाया गया कि सनातनी समाज जडमति, मूर्ख तथा भविष्य के प्रति असामंजस्यवादी होता है।
फिर तो समाज सुधार आंदोलन की बाढ़ आ गई और उनमें से अधिकांश औपनिवेशिक सत्ता के समर्थक रहे।
इस दृष्टि से तो समाज सुधार वाली बात मेरी समझ में नहीं जमती। हाँ, आदि शंकराचार्य, रामानंद जी, बल्लभाचार्य जैसे लोगों के द्वारा किया गया सुधार अवश्य ही सुधार तथा संगठन की भावना से भरा हुआ है।
बौद्ध परंपरा में भी इसी तरह महायान के विकसित होने के अपने कारण हैं। सोदाहरण कहने में भी मुझे साल दो साल लग जाएंगे। जब संप्रदाय कथा होगी, उस समय भी इस पक्ष पर प्रकाश पड़ेगा।
फिलहाल इतने से काम चलाने का कष्ट करें।
Top of Form
Bottom of Form



सहज सनातन कथा का फेसबुक लिंक

https://www.facebook.com/%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%9C-%E0%A4%B8%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%A8-Sahaj-Sanatan-1239712482724077/ सहज सन...